20 सितंबर 2025, झारखंड
झारखंड की धरती पर हाल ही में हुए रेल टोका–डहर छेका आंदोलन ने राज्य की राजनीति में नई बहस छेड़ दी है। सतह पर यह आंदोलन कुर्मी/कुड़मी समाज की ताक़त और युवाओं के उत्साह का प्रदर्शन दिखाई दिया, लेकिन इसके निहितार्थ कहीं गहरे हैं। इस आंदोलन ने न केवल कुर्मी राजनीति की सीमाएँ उजागर कीं, बल्कि आदिवासी–कुर्मी रिश्तों, अतिपिछड़ा–पिछड़ा वर्ग विवाद और कुशवाहा समाज की चेतना को भी नई दिशा दी है।
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आंदोलन की पृष्ठभूमि
कुर्मी समाज लंबे समय से अपनी राजनीतिक हैसियत मज़बूत करने की कोशिश करता रहा है। रेल टोका–डहर छेका आंदोलन इसी दिशा में उठाया गया कदम था। बड़ी संख्या में युवाओं की भागीदारी और मीडिया कवरेज ने यह संदेश देने की कोशिश की कि AJSU और JLKM जैसी कुर्मी-प्रथम पार्टियाँ मजबूत हो रही हैं। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह आंदोलन तात्कालिक लाभ तो देगा, लेकिन दीर्घकालिक संकट भी साथ लाएगा।
तात्कालिक लाभ बनाम दीर्घकालिक संकट
आंदोलन ने कुर्मी युवाओं को उत्साहित किया और समाज के भीतर ऊर्जा भरी। इससे तत्कालीन राजनीतिक लाभ जैसे वोट का ध्रुवीकरण, मीडिया में चर्चा और राजनीतिक दलों का ध्यान मिलना तय है।
लेकिन, राजनीति केवल जोश से नहीं चलती। विश्वास, संतुलन और व्यापक स्वीकार्यता भी उतनी ही ज़रूरी है। यही कारण है कि आंदोलन के निहितार्थ दीर्घकाल में संकट की ओर इशारा कर रहे हैं – आदिवासी समाज में अविश्वास, गैर–कुर्मी अतिपिछड़ों का असंतोष और जातिवाद का टैग, जो आगे कुर्मी राजनीति के लिए चुनौती बन सकता है।
आदिवासी–कुर्मी रिश्तों में खटास
झारखंड की राजनीति में आदिवासी हमेशा मूलनिवासी पहचान के प्रतीक रहे हैं। रेल रोकने जैसे आंदोलनों ने आदिवासी समाज को यह संदेश दिया कि कुर्मी उनके आरक्षण और हक पर कब्ज़ा करना चाहते हैं।
सिल्ली, रामगढ़, बड़कागांव, मांडू और बगोदर जैसी सीटों पर यह टकराव आने वाले चुनावों में और स्पष्ट हो सकता है। झामुमो (JMM) ने इस मसले पर चुप्पी साध ली है, और पार्टी विश्लेषक कुर्मी आबादी को महज़ 7% मानते हैं। इसका मतलब है कि कुर्मी समाज को सीमित प्रभाव वाले समुदाय के रूप में देखने का राजनीतिक ट्रेंड तेज़ हो सकता है।
“महतो” उपनाम पर सवाल
कुर्मी समाज ने लंबे समय तक महतो उपनाम का इस्तेमाल अपनी पहचान और ताक़त दिखाने के लिए किया। यह उपनाम मेहनतकश किसान समाज की एकता का प्रतीक था। लेकिन आंदोलन के बाद यह धारणा मजबूत हुई है कि “महतो” केवल कुर्मी का पर्याय नहीं है। दोनों राष्ट्रीय गठबंधनों – NDA और INDIA – के भीतर अब यह मान्यता बन रही है कि इस उपनाम की राजनीतिक ताक़त सीमित हो चुकी है।
BC-1 बनाम BC-2 का विवाद
झारखंड की राजनीति में BC-1 (अति पिछड़ा वर्ग) और BC-2 (पिछड़ा वर्ग) का विभाजन बड़ा सवाल है।
कुर्मी समाज – सामाजिक–आर्थिक रूप से मज़बूत और शिक्षा-संसाधनों में आगे। बावजूद इसके, ऐतिहासिक कारणों से इन्हें BC-1 में शामिल किया गया।
परिणाम – कमजोर जातियाँ जैसे कुम्हार, लोहार, कहार, तांती आदि का हिस्सा कम हो गया।
विश्लेषकों का मानना है कि यह “ऐतिहासिक विसंगति” भविष्य में बड़े राजनीतिक संघर्ष का कारण बन सकती है।
कुशवाहा समाज की सजगता
कुशवाहा समाज, जिसमें कोइरी, सूकीयार, चासा, दांगी और अन्य उपजातियाँ आती हैं, लंबे समय से राजनीतिक हाशिए पर रहा है। झारखंड बनने के बाद इन्हें अलग-अलग जातियों के रूप में अधिसूचित करने से इनकी वास्तविक आबादी कम दिखाई जाने लगी और BC-2 में डालकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व घटा दिया गया।
वास्तव में यह समाज पूरी तरह BC-1 की कसौटी पर खरा उतरता है। कुशवाहा अति पिछड़ा संघर्ष अधिकार मोर्चा (कसम) लंबे समय से इस विसंगति के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है। रेल टोका आंदोलन ने इस समाज को और जागरूक किया है कि उनका असली स्थान BC-1 में होना चाहिए।
लव–कुश मिथक पर विवाद
आंदोलन के दौरान कुछ कुर्मी नेताओं ने लव–कुश कथा को खारिज करते हुए कहा कि उनका “कुश” से कोई संबंध नहीं है। यह बयान कुशवाहा समाज के लिए भावनात्मक आघात साबित हुआ। इससे दोनों समुदायों के रिश्तों में खटास आ सकती है। यदि भविष्य में आदिवासी और कुशवाहा समाज एकजुट हो गए, तो कुर्मी राजनीति के लिए यह बड़ा संकट होगा।
आबादी का मिथक टूटा
कुर्मी नेतृत्व और संगठनों ने दशकों तक अपनी आबादी को 26% बताकर राजनीतिक दावे किए। लेकिन हालिया सर्वे और चुनावी विश्लेषणों में उनकी वास्तविक संख्या 7% आँकी गई है। इस भंडाफोड़ ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं –
1. कुर्मी वर्चस्व की धारणा कमजोर पड़ी।
2. गैर–कुर्मी अति पिछड़ा जातियों में असंतोष बढ़ा।
3. राजनीतिक दावों की नैतिक वैधता पर सवाल उठे।
भविष्य की राजनीति
रेल टोका आंदोलन ने झारखंड की राजनीति को तीन नई धुरियों में बाँट दिया है –
1. कुर्मी बनाम आदिवासी टकराव – दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और संघर्ष आगे और गहराएगा।
2. BC-1 बनाम BC-2 की लड़ाई – आरक्षण और प्रतिनिधित्व का विवाद राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनेगा।
3. कुशवाहा समाज का उदय – उपजातियों के पुनः एकीकरण और BC-1 की मांग के ज़रिए यह समाज नया राजनीतिक केंद्र बन सकता है।
JMM और हेमंत सोरेन इस बदलते परिदृश्य से सबसे बड़ा लाभ उठा सकते हैं, क्योंकि आदिवासी वोट आधार उनकी मज़बूत पकड़ में है।
निष्कर्ष
रेल टोका–डहर छेका आंदोलन केवल ट्रेनों को रोकने का प्रदर्शन नहीं था। इसने झारखंड की जातीय और राजनीतिक दिशा को नई राह दिखाई।
कुर्मी समाज – उत्साह और आंदोलन के बावजूद जातिवाद के टैग, आबादी मिथक और आरक्षण विसंगति के कारण चुनौतियों में घिरा।
कुशवाहा समाज – राजनीतिक सजगता और सही वर्गीकरण की लड़ाई के सहारे नए केंद्र के रूप में उभरता हुआ।
गैर–कुर्मी अति पिछड़े – अपने हक़ के लिए संगठित होकर न्यायिक और राजनीतिक रास्ता अपनाने की ओर अग्रसर।
आने वाले वर्षों में झारखंड की राजनीति का मुख्य विमर्श इन्हीं बिंदुओं पर टिका होगा।
रेल टोका आंदोलन ने एक साफ संदेश दिया है –
झारखंड की राजनीति में कुर्मी समाज का वर्चस्व चुनौती झेल रहा है, जबकि कुशवाहा और अन्य अति पिछड़े समाज नई शक्ति के रूप में उभर रहे हैं।